मैंने एक कविता
लिखी है तुम्हारे लिए
छिपा रखा है उसे
अपने तकिये तले
तुम दूर नभ में रहते हो
कहीं फिर भी
की हैं तुमसे बहुत
अनगिनत बातें कई
लिखी है तुम्हारे लिए
छिपा रखा है उसे
अपने तकिये तले
तुम दूर नभ में रहते हो
कहीं फिर भी
की हैं तुमसे बहुत
अनगिनत बातें कई
मेरी सारी कविताएँ
तुम्हारे समीप
समर्पण मुद्रा में हैं
तुम्हारे समीप
समर्पण मुद्रा में हैं
क्या आसमान में कोई
अपना है तुम्हारा
जो मुझसे भी ज्यादा
निहारता है तुम्हें
प्रायः मेरी कविताएं
कहती हैं मुझसे
पूर्णिमा के बाद
तो चाँद घटने लगता है
ठीक वैसे ही प्रेम पूर्ण
होने पर समाप्त हो जाता है
हाँ ! पूर्ण और गतिहीन प्रेम
हो जाता है समाप्त
पर मैंने अपने प्रेम को
पर मैंने अपने प्रेम को
अपूर्ण और अस्थिर रखा है
तुम सदैव जीवित रहोगे
तुम सदैव जीवित रहोगे
मेरी रचनाओं में
पूर्णमासी के चाँद की तरह।
पूर्णमासी के चाँद की तरह।
✍️ सीमा मोटवानी ( अयोध्या, उत्तर प्रदेश )
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