नव किसलयों से करता,
अठखेलियाँ समीर चंचल।
सहलाता उलझी-रूखी अलकें मेरी।
आवारा भ्रमर करते फूलों से गुफ्तगूं,
कानों में मेरे, गुनगुनाते कई बिसरे गीत।
श्यामल घन घटाएँ अंबर का करती आलिंगन,
यादों की दरख़्तों से झाँकते रोमांचक पलछिन।
बरसने को आतुर एक सावन मन में भी मेरे,
जी लेने को व्याकुल कितने अनछुए सपने।
बरसती धरा ओ मन पर मृदुल बूँदे,
हर तृषा हमारी कर जाती तृप्त।
हुलसित हो उठते क्षुब्ध मन प्रांगण,
हो एकरस रचते फिर हम नया सरगम।
✍️ कविता कोठारी (कोलकाता, पश्चिम बंगाल)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें