काश की तुम होते
तो देखते कि
तुम्हारे होने मात्र से
कितनी गुलज़ार थी वो गलियाँ
जो जाती थीं घर की ओर
कितना रौब था
लोहे के उस फाटक में
जो खुलता था
घर की मुख्य दहलीज़ पर…
काश की तुम होते
तो देखते कि
कैसे आती थी हवा
महकते फूलों को छूकर
और प्रवेश कर जाती थी
घर के भीतर
बंद झरोखों और
किवाड़ों से भी
और मुस्कुरा उठती थी
घर की दीवारें सारी की सारी…
काश की तुम होते
तो देखते कि
जो पीड़ा..जो तकलीफ़ें
झट से ओझल हो जाती थी
तुम्हारी उपस्थिति मात्र से
अब कैसे मुस्कुरा निहारती हैं मुझे
देखती हैं एकटक…
मानो पूछती हों… अब कौन ?
देखो ना कैसी भुलक्कड़ हूँ
भूल गयी बताना
हालाँकि
उन गलियों में
कुछ हफ़्तों पहले ही बनी है
नयी चमाचम सड़क
पर हैं कितनी बेजान और अर्थहीन
क्योंकि अब तुम नही हो…
अभी पिछले ही महीने
नया रंग रोगन हुआ है
फाटक का भी
उसके बावजूद वो लगता है
बेरंग और उदास
क्योंकि अब तुम नही हो…
अब तो खुली रहती है
सारी खिड़कियाँ… सारे झरोखे
पर अब लौट जाती है हवा
झांक बाहर से ही
क्योंकि तुम नही हो
और दीवारें मायूस हो
अब भी ताकती हैं तुम्हारा रास्ता
कि तुम आओगे शायद
और भर दोगे उन्हें जीवंतता से…
तुम्हारे ना होने का अहसास
कितना पीड़ादायक है
और कितना असहनीय
काश की तुम होते
तो देखते कि
कितने मायने थे तुम्हारे होने के…
✍️ भारती राय ( नोएडा, उत्तर प्रदेश )
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