गुरुवार, जून 08, 2023

⛲ मैं और बरसात ⛲









भिगोती है तन, संग भीगता मन

प्रकृति का है उपहार अनुपम

जैसे छेड़ दी हो कोई सरगम

बंजर जमीन को करती तृप्त ऐसे

प्रियतम को, प्रियसी के अधर हो जैसे।


है शीतल मगर 

लेती कभी विकराल रूप भी

यह बरसात

कभी है ठंडी फुहार सी

और कभी अधूरी रह गई ख्वाहिशों सी

अपने मन की ही करती

जब मर्जी हो आ जाती है

मेरी आंखो का पानी हो जैसे।


देखी है दोनों में एक समानता

जैसे बरसात धो देती है

हर सड़क, पेड़ों पर लदी धूल

बरसात के बाद निखर आती है धूप

प्रकृति की छटा अद्भुत निराली


ऐसे ही मेरी आँखों से 

हो जब भी बरसात

धुल जाता है हर दर्द 

फालतू की जमी गर्त

खुल जाती है जैसे

सकारात्मक सी कोई परत 

और फिर निखर आता है 

मन का हर कोना

एक जैसा ही तो है

प्रकृति तेरी और मेरी 

आंखों से बरसात का होना।।


✍️ प्रतिभा सागर ( शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश )

1 टिप्पणी:

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