माँ होना अपने आप में गौरवपूर्ण है पर साथ ही बहुत ही जिम्मेदारी और चुनौतियों से पूर्ण भी है। पारंपरिक रूप से स्त्री व पुरुष की भूमिका विभाजित थी। वर्तमान में यह विभाजन रेखा विलीन हो गई है। आज की नारी सशक्त, जागृत, शिक्षित एवं स्वयं सिद्धा है। संस्कृति की नींव डालने का दायित्व उसी पर है। गर्भ संस्कार ही बालक के भविष्य का दिशा निर्देशन करता है। समय तेजी से बदल रहा है और साथ ही जीवन शैली। प्रौद्योगिक संतृप्त वातावरण, आधुनिकरण और वैश्वीकरण में बच्चे को बड़ा करना और भी चुनौतीपूर्ण हो गया है। एकल परिवार में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। ऐसे समय एक माँ की जिम्मेदारी दोगुनी हो गई है। परंतु माँ के संकल्प के आगे हर चुनौती छोटी पड़ जाती है। 21वीं सदी में कामकाजी माँ के लिए मातृत्व और कैरियर के बीच संतुलन बनाना एक बड़ी चुनौती है। इनमें समय का अभाव सबसे बड़ी चुनौती है। बच्चों को समय ना दे पाने के कारण वे मानसिक संत्रास से गुजरती हैं। आत्मनिर्भरता का रास्ता भी अपने परिवार को सुदृढ़ बनाने के लिए चुनती हैं परंतु दुर्भाग्यवश अनवरत कार्य करके भी उन्हें निष्ठुरता का सामना करना पड़ता है। उन्हें कैरियर उन्मुख, गैर जिम्मेदार तथा बच्चों के व्यवहार संबंधी समस्याओं के लिए भी जिम्मेदार ठहराया जाता है जबकि देखा गया है कि कामकाजी महिला के बच्चे आत्मनिर्भर एवं आत्मविश्वास से पूर्ण होते हैं। नमन है उन माताओं को जो अद्भुत कौशल के साथ दोनों भूमिकाएँ निभा रही हैं और ‘स्वयं सिद्धा माँ’ को शब्दशः चरितार्थ कर रही हैं।
✍️ कविता कोठारी ( कोलकाता, पश्चिम बंगाल )
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें