शनिवार, जून 03, 2023

⛲ गागर में सागर ⛲









कहाँ-कहाँ बिखरे पड़े हो तुम

कहाँ-कहाँ से समेटू तुम्हें

तकिये की लिहाफ धो लूँ

या सिलवटों पर यूँ ही सो लूँ

स्याह रातों से बातें करूँ

या चाँद संग बैठ रो लूँ

बोलो ना...

कहाँ-कहाँ बिखरे पड़े हो तुम ।


आईना भी अक्स 

तुम्हारा ही दिखाता है

कभी परदे की ओट से 

चेहरा तुम्हारा निकल आता है

आँखों मे फिर कोई

ख़्वाब मचल जाता है

नाम तुम्हारा जब

किसी के होंठो पर आता है

कितना कैसे तुम्हें समेटू मैं।


वो सिक्के अब क्यों हैं खनकते

देते तो थे तुम अक्सर गिनके

घरोंदें हमने भी बनाये थे

तिनके-तिनके चुनकर

अब क्या तिनको में खोजूं तुम्हें

कितने बिखरे पड़े हो तुम।


होली के वो रंग जो बच जाते थे

अक्सर मुझे रंगने के बाद

अब की पूछें हैं मुझसे 

जाने कितने सवाल

कि कैसे रंगों में बटोरूं तुम्हें

जाने कितने बिखरे पड़े हो तुम।


ये जो तुमको समेट कर

खुद‌ में इकठ्ठा कर लिया मैंने

जाने कैसे गागर में सागर

भर लिया मैंने।।


✍️ सीमा मोटवानी ( अयोध्या, उत्तर प्रदेश )

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