समय का व्याकरण
और हम...
अ, आ, इ, ई के जाल में उलझे
बुनते ताने बाने
छोटा उ, बड़ा ऊ
क्या घटाऊँ, क्या बढ़ाऊँ
रिश्ते घटते, असंवेदनशीलता बढ़
देखते सब कुछ
मोहमाया के जंजाल में फँसे...
ज़िंदगी हमपर जैसे लगातार कोई तं
ए, ऐ का भी खेल निराला
लय, सुर, ताल पर पड़ गया ताला..
जीवन की डगर कभी इधर से गुजरे
तो कभी उधर से गुजरे
जिंदगी करती दिखती बिन ताल के
सोचने बैठे ओ, औ, अं, अः
होंठो पर हंसी गायब स्वतः..
कितने और उतार चढ़ाव
जाने क्या है जीवन का बहाव...
आँखों की नदी अब बनी समंदर
गहरी वेदना इसके अंदर....
कुछ भी नही बचा अब शेष
चल रही हैं बस साँसें और धड़कन.
और समय के इस व्याकरण में
बस उलझे रह गए हम...
✍️ भारती राय ( नोएडा, उत्तर प्रदेश )
Waah waah waah. Bahut sateek
जवाब देंहटाएं🙏🏼🙏🏼
हटाएंक्या बात है कवयित्री महोदया. क्या ख़ूब कही आपने-
जवाब देंहटाएंक्या घटाऊँ, क्या बढ़ाऊँ
रिश्ते घटते, असंवेदनशीलता बढ़ते,
देखते सब कुछ
मोहमाया के जंजाल में फँसे...।
बहुत बधाई आपको🌹❣️
🙏🏼🙏🏼
हटाएंबहुत सुंदर रचना प्रस्तुति है आपके द्वारा। आपको पढ़ना बड़ा ही सुखद होता है। ऐसे ही लिखती रहें और हिंदी भाषा को समृद्ध करती रहें। बधाई एवं शुभकामनाएँ🌷🌷🥰
जवाब देंहटाएं🙏🏼🙏🏼
हटाएं👌👌💕
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हटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएं🙏🏼🙏🏼
हटाएंअति मनभावक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं🙏🏼🙏🏼
हटाएंbahut sandar
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हटाएंbahut sundar
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हटाएंItna shaandaar aur arth poorna lekhan aap hi kar sakti hain💕. Pranayam hai aapki lekhni ko🙏🏻🌹💕
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हटाएंPranaam hai🙏🏻
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हटाएं🙏🏻🌹💕❤️
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हटाएंBahut badhiya keep it up
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हटाएंजीवन के करीब है ,बहुत बेहतरीन
जवाब देंहटाएं🙏🏼🙏🏼
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