वक्त
कभी मिला ही नही
उसे
अपने लिए।
बचपन की
पगडंडी पर
बाबा के
सपनों की लाठी
थामकर चली थी।
जवानी की
दहलीज पर
अम्मा ने
संस्कारों की
पोटली बांध
विदा कर दिया था।
रिश्तों के
दायरे
बढ़ने लगे तो
जिम्मेदारियों ने
भी पर फैलाए।
फूल जब खिले
बसंत का आभास था
एक बार फिर
अपने आप को
दुछत्ती पर रख
वो बगिया
संवारने लगी।
सपने पूरे हुए
संस्कार निभाए गए
रिश्ते भी
फले फूले
बगिया
आज हरी भरी है।
आज
बाबा के सपने
अम्मा के संस्कार
रिश्ते
जिम्मेदारियां
बगिया
हर एक चीज
सही ठिकाने पर है।
बस
वो खुद
कहीं खो गई है।
उम्र के इस छोर पर
खड़ी होकर
सोच रही है
कितना वक्त
बीत गया
मगर
वक्त कभी
मिला ही नहीं
मुझे
अपने लिए।
✍️ निरुपमा बिस्सा ( दुर्ग, छत्तीसगढ़ )
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जवाब देंहटाएंअति सुन्दर🙏
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