रच्चणहारे का कमाल, सुंदर, सुडौल काया का उपहार।
ब्रह्मांड का अद्भूत शिल्पकार, सृष्टि का सृजनहार।
अंग-ढंग-रंग अलग, कर्म-धर्म-मर्म अलग।
एक-दूजे से जुड़े-जुड़ें, नहीं क्रोध, ईर्ष्या, उद्वेग।
आँख बिन सब जग अंधियार, कान बिन कैसे सुने हुंकार ?
जीभ लालकड़ी घोले मिठास,
नाक बिना कैसे सांसों की झंकार ?
हाथ-पैर मज़बूत आधार, कैसे कर्म-चक्र की बढ़े रफ़्तार ?
मस्तिष्क ने थामी सबकी डोर, कौन गौण, कौन सिरमौर ?
हिलमिल करे सारे काम, एकजुटता का है प्रमाण।
नहीं किसी को अहंकार, नहीं किसी के मन में अभिमान।
स्व-कर्तव्यों का करे निर्वहन, न डाले एक-दूजे में व्यवधान।
काया नश्वर, जाने सुधी जन, फिर भी न छूटे तन मोह।
अजर, अविनाशी, अमर्त्य, आत्मा छोड़, ले मानवी, मर्त्य की टोह।
ना शस्त्र काट सकते, न अग्नि जला सकती,
ना जल गीला कर सकती, न वायु सुखा सकती।
पंचतत्व में विलीन होती हैं काया, आत्मा, अमर, अविनाशी।
ब्रह्मांड का अद्भूत शिल्पकार, सृष्टि का सृजनहार।
अंग-ढंग-रंग अलग, कर्म-धर्म-मर्म अलग।
एक-दूजे से जुड़े-जुड़ें, नहीं क्रोध, ईर्ष्या, उद्वेग।
आँख बिन सब जग अंधियार, कान बिन कैसे सुने हुंकार ?
जीभ लालकड़ी घोले मिठास,
नाक बिना कैसे सांसों की झंकार ?
हाथ-पैर मज़बूत आधार, कैसे कर्म-चक्र की बढ़े रफ़्तार ?
मस्तिष्क ने थामी सबकी डोर, कौन गौण, कौन सिरमौर ?
हिलमिल करे सारे काम, एकजुटता का है प्रमाण।
नहीं किसी को अहंकार, नहीं किसी के मन में अभिमान।
स्व-कर्तव्यों का करे निर्वहन, न डाले एक-दूजे में व्यवधान।
काया नश्वर, जाने सुधी जन, फिर भी न छूटे तन मोह।
अजर, अविनाशी, अमर्त्य, आत्मा छोड़, ले मानवी, मर्त्य की टोह।
ना शस्त्र काट सकते, न अग्नि जला सकती,
ना जल गीला कर सकती, न वायु सुखा सकती।
पंचतत्व में विलीन होती हैं काया, आत्मा, अमर, अविनाशी।
✍️ कुसुम अशोक सुराणा ( मुंबई, महाराष्ट्र )
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