जगत के खेल सब पहले से रचे जिंदगी में
काया नहीं तो कुछ नहीं पाया जिंदगी में
काया नहीं तो कुछ नहीं पाया जिंदगी में
श्याम रंग में रंग गयी काया
प्रीत की जबसे पड़ी छाया
मोहन तुम ने मोहे भरमाया
नख शिख तक है सजाया
कैसे सुधरेंगें बिगड़े कोई काम जिंदगी में
काया नही तो कुछ नहीं पाया जिंदगी में
बेडौल शरीर कब लगे अच्छा
जान रहा अब बच्चा-बच्चा
रंग रूप ना हाथ कभी होता
बिगड़े काया की सुडौलता
स्वास्थ्य नहीं तो कुछ नहीं है जिंदगी में
काया नहीं तो कुछ नहीं पाया जिंदगी में
स्वस्थ शरीर ही हमारा साथी
दीदे, घुटने सब बचे रहे बाकी
फिट रहने को ना पैसा फुंकता
कोई किसी के राह ना झुकता
पूरा जीवन यूँ ही बीता किसे रिझाने में
काया नहीं तो कुछ नहीं पाया जिंदगी में
घूमो फिरो खाओ-पियो मस्त रहो
अंग-अंग प्रत्यंग से बस स्वस्थ रहो
प्रेम विरह ये तल्खियां जिंदगी की
दौर ए हिस्सा उस रूमानियत की
हम बस किरदार निभाने आए जिंदगी में
काया नहीं तो कुछ पाया नहीं जिंदगी में
दुख दर्द व्यक्तिगत अनुभूति बना
स्मृतियों पर खड़ा होता महल अनूठा
जिंदगी को क्या खूब पहचान लिया
बिन सीखे कितना कुछ जान लिया
हम तो रिश्ते निभाते रह गये जिंदगी में
काया नहीं तो कुछ नहीं पाया जिंदगी में
✍️ सुनीता सोलंकी 'मीना' ( मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश )
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