इस घर मे सब जानते हैं मुझे
ये दीवारें.. जो सुनती हैं
सदा ही मेरी सिसकियां
ये पर्दे...जो अक़्सर ही
दुनियां से छुपा लेते हैं
मेरी रोनी सी सूरत
ये पँखे ...जो हर बार
सुखा देते हैं अश्कों को
गालों पे गिरने से पहले
ये शॉवर ...जो मुझे
खुल कर रो देने पर अपने
आग़ोश में समेट लेता है
नहीं जानते हैं... वो लोग
जिनके लिए झोंक देती हूँ ख़ुद को
भूख प्यास भूल कर
तिल-तिल मरने के लिए
और नहीं जानते हैं वो भी
जिनके लिए रात को रात
और दिन को दिन नहीं समझती
और वो लोग तो मुझे
बिल्कुल भी नहीं जानते हैं
जो मेरे आत्मसम्मान को
बार बार रौंद देते हैं
अपने क़दमों के नीचे
कहाँ जानते हैं वो लोग मुझे
जो रिश्ते मिले हैं तुम्हारी वजह से
मगर बुरा नही लगता
बुरा तब लगता है
जब तुम मुझे नही जानते हो
जब तुम नही समझते हो मुझे
तब सोचती हूँ तुम्हारी एक आवाज़ पर
क्यूँ भागी आती हूँ ...क्यूँ नहीं तलाशी मैं
ख़ुद के वजूद को ..क्यूँ नहीं....
शायद .......
✍️ संध्या रामप्रीत ( पुणे, महाराष्ट्र )
बुरा लगना लाज़मी
जवाब देंहटाएंसटीक लिखा
जी शुकिया sir जी
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