वात्सल्यता के भाव लिए,
कर्मठता की मिसाल बने।
गृहस्थी के गुण मे निपुण,
थी दादी सर्वगुण सम्पन्न।
कण मे से अन्न निकाल लेती,
क्षण-क्षण को सँवार जाती।
स्वाबलंबन के पाठ निज,
कार्य करके सिखा जाती।
व्रत या उपवास हो,
पर्व या त्योहार हो,
ना थकती, ना रुकती।
एक ही साथ वो कई,
कार्यों को संभाल लेती।
आध्यात्मिकता को आत्मसात करती,
सात्विकता के साथ जीती।
एक दिवस रात क्या ?
वर्षों से तप करती।
वैराग्य भाव से वह,
अपना दिन बिताती थी,
लोगों को गृहस्थी के गुण
कई सिखाती थी।
मिट्टी के घर आँगन ही नही,
दीवारें भी सजा जाती।
उसके स्पर्श से चित्रकला,
खिलखिला जाती।
स्वच्छता पवित्रता स्नेह भाव से सने,
भोजन का स्वाद आज भी बताये न बने।
उसके भानू मति के पिटारा का ही था कमाल,
किसी के आड़े वक्त को वो लेती थी संभाल।
उसके लिहाज मे सब विनम्र रहते थे,
छोटे-छोटे बच्चे क्या बड़े भी सहमते थे।
उठने-बैठने की, सोने-जगने की, चलने-बोलने की,
तहज़ीब ही जीवान्त थी। सच कहूँ उसी मे
अपनी संस्कारों की नींव थी।
डपट मे भी नेह थी, ना कहीं कपट शेष थी।
सरसता के भाव मे गीत कई गाती थी।
हँसती खूब ! हँसाती थी।
उसकी कई बातें याद मुझे आती है,
उसकी आवाज बुआ मे सुन जाती हूँ।
उसकी भावो की चहक पिता और,
चाचाओं मे पाती हूँ।
बिखरे इन भावों को रोज ही समेटती हूँ,
दूर कहीं क्षितिज मे दादी को ढूँढती हूँ।।
✍️ नीति झा ( पटना, बिहार )
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