शुक्रवार, नवंबर 12, 2021

🕺काग़ज़ की कश्ती🕺

 

नही सिर्फ़ ये काग़ज़ की कश्ती,
भरी है इसमें बचपन की मस्ती।
आया सावन नदियाँ भर गईं, 
बच्चों की काग़ज़ की नाव  गई।


हाथों में लेकर भागे सब नाव,

धरती पर नही पड़ रहे थे उनके पाँव।

बचपन की गलियों में खेल रहे थे बच्चे ,

आनंद उनके लग रहे थे कितने सच्चे


हिलती-डुलती हिचकोले खाती लगी नाव तैरने,

देख तैरती अपनी नाव बच्चों की आँखें लगी चमकने।

ये नज़ारा जैसे इक सपना था,

दिखा रहा मेरा बचपन था


मैंने भी इक नाव बनाई,

जाकर बच्चों संग चलाई।

एक अद्भुत ख़ुशी मैंने पाई,

जब अपने बचपन से आँख मिलाई।


काग़ज़ की नाव चली,

गाँव चली,

कभी शहर चली।

गलियों से गुज़रती,

पल भर  ठहरती।

गड्ढों से निकलती,

पत्थरों पर उछलती।

मंज़िल पाने में हुई मनचली,

काग़ज़ की नाव चली,

गाँव चली,

कभी शहर चली।


बच्चों ने इक सीख सिखा दी,

सच्चे ख़ज़ाने की पहचान करा दी।  

बह रही थी काग़ज़ की नाव,

जगा रही थी सोए भाव।


देख नज़ारा ये मैं खो गई,

भूलभुलैया सी ज़िंदगी में खुद को पा गई

तभी सुनाई दी बच्चों की किलकारियाँ,

कूद रहे थे सबसाहिल पा गईं थी कश्तियाँ 


              ✍️ इंदु नांदल ( बावेरिया, जर्मनी )



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