नटखट, मासूम अल्हड़पन,
बीते न अलबेला बचपन।
छोटे-छोटे सुन्दर सपने,
हकीकत से दूर, अनजाने।
मिट्टी के खिलौने, लुभावने,
प्यारे-प्यारे रंगीन, सुहावने।
प्रकृति मां की छांव शीतल,
दुलार का हरियाला आँचल।
कागज की छोटी-सी कश्ती,
बारिश बूंदों की मौज मस्ती।
धमाल, शोर शराबा, उल्लास चहके,
गूंजे उन्मुक्त, निश्छल हंसी ठहाके।
खिलखिलाती रहें सदा खुशियां,
रंगरंगीली, मतवाली अठखेलियां।
सखा, मित्रोंसंग खेले खूब जी भर,
आनंद ,उल्लास से नाचे मनमोर।
मासूम को नहीं चाह महंगे खिलौनों की,
खिलौने स्टेटस सिंबल, चाह दिखावे की।
बेशकीमती खिलौने, केवल दर्शनीय कृतियों से,
आनंद ढूंढें भी कभी,नहीं मिलता खेलने से।
महज शो केस की शोभा ये खिलौने होते हैं,
चारदीवारी में कैद सपने सतरंगे होते हैं।
खेलने दो बच्चों को पंछियों से हो उन्मुक्त,
उनकी अपनी परिधि में, हो भय मुक्त।
मुस्कुराने दो अपने हमउम्र साथियों के संग,
जीवन में सजाने दो विविध, नवल ऋतु रंग।
खेलने दो खुले मैदानों में, खेत, खलिहानों में,
लहराते पवन संग, नव तरंग, उमंग सहेजते।
पर्वत की गगन छूती उत्तुंग चोटियों पर,
वृक्षों की फल-फूल लदी डालियों पर।
उछलते, कूदते, आनंदोत्सव मनाते बच्चे,
भोले-भाले प्रभु से दिल के होते हैं सच्चे,
गिल्ली-डंडा, छुपम-छुपाई,
लंगड़ी, खो खो, नित नई नवलाई।
न सिर्फ गुड़िया, ड्रोन, इलेक्ट्रॉनिक्स,
कंप्यूटर, मोबाइल, विडिओ गेम्स।
सब कुछ हो रहा हैं ऑनलाइन,
और पालनाघर में सिसक रहा बचपन।
होश, जोश की उम्र आते-आते,
न जाने कब मशीन का पुर्जा बन जाते।
छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, ऊंच-नीच,
न मन में कोई भेदभाव, न कोई खिचखिच।
खुशियां छितराना चाहता है भोला बचपन,
जैसे कोई खिला खिला गुलजार गुलशन,
फूलों की तरोताजगी, चाहता हैं अल्हड़पन,
दीपित होना हैं तेजस सूरज-सा, चांद सितारों-सा,
ख़ूबसूरत सुनहरा दमकता भविष्य चाहता हैं,
आज बालमन वर्तमान बेफिक्र हो जीना चाहता हैं,
मासूम बचपन जी भर हंसी ख़ुशी जीना चाहता हैं।
फूलों-सा महकना, पंछियों-सा चहकना चाहता हैं,
पर्यावरण मित्र बन, खुलकर मुस्कुराना चाहता हैं।
बीते न अलबेला बचपन।
छोटे-छोटे सुन्दर सपने,
हकीकत से दूर, अनजाने।
मिट्टी के खिलौने, लुभावने,
प्यारे-प्यारे रंगीन, सुहावने।
प्रकृति मां की छांव शीतल,
दुलार का हरियाला आँचल।
कागज की छोटी-सी कश्ती,
बारिश बूंदों की मौज मस्ती।
धमाल, शोर शराबा, उल्लास चहके,
गूंजे उन्मुक्त, निश्छल हंसी ठहाके।
खिलखिलाती रहें सदा खुशियां,
रंगरंगीली, मतवाली अठखेलियां।
सखा, मित्रोंसंग खेले खूब जी भर,
आनंद ,उल्लास से नाचे मनमोर।
मासूम को नहीं चाह महंगे खिलौनों की,
खिलौने स्टेटस सिंबल, चाह दिखावे की।
बेशकीमती खिलौने, केवल दर्शनीय कृतियों से,
आनंद ढूंढें भी कभी,नहीं मिलता खेलने से।
महज शो केस की शोभा ये खिलौने होते हैं,
चारदीवारी में कैद सपने सतरंगे होते हैं।
खेलने दो बच्चों को पंछियों से हो उन्मुक्त,
उनकी अपनी परिधि में, हो भय मुक्त।
मुस्कुराने दो अपने हमउम्र साथियों के संग,
जीवन में सजाने दो विविध, नवल ऋतु रंग।
खेलने दो खुले मैदानों में, खेत, खलिहानों में,
लहराते पवन संग, नव तरंग, उमंग सहेजते।
पर्वत की गगन छूती उत्तुंग चोटियों पर,
वृक्षों की फल-फूल लदी डालियों पर।
उछलते, कूदते, आनंदोत्सव मनाते बच्चे,
भोले-भाले प्रभु से दिल के होते हैं सच्चे,
गिल्ली-डंडा, छुपम-छुपाई,
लंगड़ी, खो खो, नित नई नवलाई।
न सिर्फ गुड़िया, ड्रोन, इलेक्ट्रॉनिक्स,
कंप्यूटर, मोबाइल, विडिओ गेम्स।
सब कुछ हो रहा हैं ऑनलाइन,
और पालनाघर में सिसक रहा बचपन।
होश, जोश की उम्र आते-आते,
न जाने कब मशीन का पुर्जा बन जाते।
छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, ऊंच-नीच,
न मन में कोई भेदभाव, न कोई खिचखिच।
खुशियां छितराना चाहता है भोला बचपन,
जैसे कोई खिला खिला गुलजार गुलशन,
फूलों की तरोताजगी, चाहता हैं अल्हड़पन,
दीपित होना हैं तेजस सूरज-सा, चांद सितारों-सा,
ख़ूबसूरत सुनहरा दमकता भविष्य चाहता हैं,
आज बालमन वर्तमान बेफिक्र हो जीना चाहता हैं,
मासूम बचपन जी भर हंसी ख़ुशी जीना चाहता हैं।
फूलों-सा महकना, पंछियों-सा चहकना चाहता हैं,
पर्यावरण मित्र बन, खुलकर मुस्कुराना चाहता हैं।
✍️ चंचल जैन ( मुंबई, महाराष्ट्र )
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