हथेलियों से गुलाल उछालती,
लाल, केसरिया चुनर लहराती,
सुबह देख मंत्रमुग्ध हो जाऊं ?
या सूरज के घोड़ों पर सवार,
रश्मियों से आँखें चार कर,
सूरजमुखी से प्रीत लगाऊं ?
होले से पंखुड़ियों को खोल,
कांटों पर कहकशां लगाते,
गुलाब को देख मुस्कुराऊं ?
प्रकृति के विराट फलक पर,
रच्चनहारे के कमाल का,
मस्त-मौला बन आनंद लूं ?
सागर के विराट स्वरूप संग,
लहरों के अनवरत गुंजन का,
विनित हो अनुभूतियों समेटू ?
क्षितिज की अकल्पनीय रेखा तक,
धरती-अम्बर के अद्भुत मिलन का,
सौंदर्य-बोध ले तृप्त हो जाऊं ?
धरती के वक्षस्थल को चीर,
सूरज को निहारते अंकुर सा,
सृष्टि के सृजन का आनंद लूं ?
अमृतकलश भर-भर ले जाते,
शुभ्र-श्यामल चंचल बादल सा
पवन संग राग मल्हार गाऊं ?
असह्य प्रसव पीड़ा सहती,
शिशु का रूदन सुनने तरसती,
जननी के जन्नत का नज़रा देखूँ ?
मधुचंद्रमा का बखान करूं ?
या सेनानी का अक्स निहारती,
सुहागन का श्रृंगार निरखूं ?
या सागर की सतह चूमते,
पूर्णमासी के चांद को देख रश्क करूं ?
नयन आसक्त हो जाए ऐसे,
नज़रों से ओझल राज खोलूं ?
यौवना के मादक सौंदर्य पर बोलूं,
या मुस्कुराते शिशु की बलैया लूं ?
तपती धूप में स्वेद बहाते,
लकड़हारे का शरीर सौष्ठव निहारू ?
खेत-खलियानों में भूमिहारों के,
माथे पें चमकते मोतियों को निरखू ?
प्रकृति के रूप नु रब दे पैमानों पर तोलू ?
रच्चणहारें दा शुक्राना कर, रब से अरदास कर लूं ?
तन सुंदर, मन निर्मल, दृष्टि पावन कर दूं!
सृष्टि के सौंदर्यबोध को शुद्ध भावों से मनभावन कर दूं।।
✍️ कुसुम अशोक सुराणा ( मुंबई, महाराष्ट्र )
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें