गुरुवार, नवंबर 25, 2021

💢सौंदर्य बोध 💢


हथेलियों से गुलाल उछालती,
लाल, केसरिया चुनर लहराती,
सुबह देख मंत्रमुग्ध हो जाऊं ?

या सूरज के घोड़ों पर सवार,
रश्मियों से आँखें चार कर, 
सूरजमुखी से प्रीत लगाऊं ?

होले से पंखुड़ियों को खोल,
कांटों पर कहकशां लगाते,
गुलाब को देख मुस्कुराऊं ? 

प्रकृति के विराट फलक पर,
रच्चनहारे के कमाल का,
मस्त-मौला बन आनंद लूं ?  

सागर के विराट स्वरूप संग, 
लहरों के अनवरत गुंजन का,
विनित हो अनुभूतियों समेटू ?

क्षितिज की अकल्पनीय रेखा तक,
धरती-अम्बर के अद्भुत मिलन का,
सौंदर्य-बोध ले तृप्त हो जाऊं ?

धरती के वक्षस्थल को चीर,
सूरज को निहारते अंकुर सा,
सृष्टि के सृजन का आनंद लूं ? 

अमृतकलश भर-भर ले जाते, 
शुभ्र-श्यामल चंचल बादल सा
पवन संग राग मल्हार गाऊं ?

असह्य प्रसव पीड़ा सहती,
शिशु का रूदन सुनने तरसती,
जननी के जन्नत का नज़रा देखूँ ?

मधुचंद्रमा का बखान करूं ?
या सेनानी का अक्स निहारती,
सुहागन का श्रृंगार निरखूं ?

या सागर की सतह चूमते,
पूर्णमासी के चांद को देख रश्क करूं ?

नयन आसक्त हो जाए ऐसे, 
नज़रों से ओझल राज खोलूं ?

यौवना के मादक सौंदर्य पर बोलूं,
या मुस्कुराते शिशु की बलैया लूं ?

तपती धूप में स्वेद बहाते,
लकड़हारे का शरीर सौष्ठव निहारू ?

खेत-खलियानों में भूमिहारों के,
माथे पें चमकते मोतियों को निरखू ?

प्रकृति के रूप नु रब दे पैमानों पर तोलू ?
रच्चणहारें दा शुक्राना कर, रब से अरदास कर लूं ?

तन सुंदर, मन निर्मल, दृष्टि पावन कर दूं!
सृष्टि के सौंदर्यबोध को शुद्ध भावों से मनभावन कर दूं।।

               ✍️ कुसुम अशोक सुराणा ( मुंबई, महाराष्ट्र )





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