एक दीया माटी का थक कर ढूंढने चला प्रकाश।
साथी जिसका कोई नहीं एक धरती एक आकाश।।
साथी जिसका कोई नहीं एक धरती एक आकाश।।
बरसों पहले किसी ने उसमें एक चिराग जलाया था।
अब क्या होगा उसका यह सोचकर वह घबराया था।।
नये 'दीयों' के बीच क्या पूरी होगी उसकी तलाश ?
एक दीया माटी का थक कर ढूंढने चला प्रकाश।।
मिली ठोकर पर ठोकर वह बार-बार टूटने से बचता,
सोच-सोच कर 'दीया' बेचारा इधर-उधर रहा भटकता।
जिसने मुझको गढ़ा था फिर मिल जाता हाय मुझको काश।
एक दीया माटी का थक कर ढूंढने चला प्रकाश।।
एक आशा लेकर वही 'दीया' चला नए शहर की ओर।
जहाँ बिजली की थी चकाचौंध चारों ओर शोर ही शोर।।
नरक चौदस के दिन भी वह कूड़े में था पड़ा निराश।
एक दीया माटी का थक कर ढूंढने चला प्रकाश।।
घनघोर अंधेरे में एक बाला 'दीया' उठाकर ले गई।
पानी से नहला कर 'दीये' को एक नए रंग में रंग गई।।
जब जला 'दीया' नये दीयों में फूलों में जैसे पलाश।
एक दीया माटी का थक कर ढूंढने चला प्रकाश।।
'दीये' के नहान के पानी को छिड़काया घर में जैसे गंगाजल।
घर स्वच्छ लगा वह मंदिर सा जैसे मिल गया हो उसका कल।।
दिखे लक्ष्मी संग गजानन जिन्होंने 'दीये' को दिया तराश।
एक दीया माटी का जिसने ढूंढ लिया था अपना प्रकाश।।
✍️ प्रतिभा तिवारी ( लखनऊ, उत्तर प्रदेश )
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