दीपावली का पर्व है पुरुषार्थ का,
जगमग करते दीपों के दिव्यार्थ का,
मर्यादा पुरुषोत्तम के पुनः गृह आगमन का,
अधर्म पर धर्म की विजय का।
हर दरवाजे पर दीपक एक जलता रहे,
अंधकार से उजियारा जीतता रहे,
ज्ञान का विस्तार होता रहे,
अज्ञानता का अंधकार
और अंधियारे की घोर-कालिमा,
यूँ ही हमेशा भागती रहे।
उजियारे की स्वर्ण-लालिमा,
यूँ ही हमेशा फैलती रहे।
दीपक के लिए ज्योति ही है उसका प्रथम तीर्थ,
रोशनी इसकी बिखरती रहे,
तो ही इसका अर्थ है,
वरना इसका होना व्यर्थ है।
जगमग करते दीपों के दिव्यार्थ का,
मर्यादा पुरुषोत्तम के पुनः गृह आगमन का,
अधर्म पर धर्म की विजय का।
हर दरवाजे पर दीपक एक जलता रहे,
अंधकार से उजियारा जीतता रहे,
ज्ञान का विस्तार होता रहे,
अज्ञानता का अंधकार
और अंधियारे की घोर-कालिमा,
यूँ ही हमेशा भागती रहे।
उजियारे की स्वर्ण-लालिमा,
यूँ ही हमेशा फैलती रहे।
दीपक के लिए ज्योति ही है उसका प्रथम तीर्थ,
रोशनी इसकी बिखरती रहे,
तो ही इसका अर्थ है,
वरना इसका होना व्यर्थ है।
✍️ नीलम वन्दना ( नासिक, महाराष्ट्र )
उत्तम रचना
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