पुनीत धरती पर जीवन पाकर ईश्वर का उपहार मिला
प्राणी को नेत्र-ज्योति प्रकृति का अनुपम उपकार मिला।
दृग बिना चहुँदिश अँधेरा, सब कुछ लगता एक समान
सूर्य, चंद्र, तारों का भी किसी को कुछ नहीं होता भान।
चक्षु मिले जब प्रथम बार, निर्मल रूप दिखी ममता की
शिशु-स्नेह, अवलम्बन की प्रतिमूर्ति थी मिली पिता की।
आँखें हैं अनमोल कि जिसने, हमको सुंदर संसार दिया
सृष्टि की अतुल्य सृजन यह, रंग, रूप और प्यार दिया।
जाने कब तक जीवन हो, अगले पल से हैं सब अनजान
नष्ट वपु फिर भी हैं धरा पर, नेत्र का देकर अपने दान।
नैन ही जाने नैन की भाषा, नैन-छवि दिल में बस जाए
हर्ष, विषाद, व्यथा विदित हो, जरा पर्णल-पलकें हट जाए।
नैन न होते तो धरा पर कुछ भी कर पाना मुश्किल था
श्रेष्ठता पाना जीवों में, मानव-धर्म निभाना मुश्किल था।
दृष्टि न होती तो वसुधा पर ईश्वर का दर्शन पाता कौन ?
भला-बुरा और ऊँच-नीच का अंतर हमको बतलाता कौन ?
प्राणी को नेत्र-ज्योति प्रकृति का अनुपम उपकार मिला।
दृग बिना चहुँदिश अँधेरा, सब कुछ लगता एक समान
सूर्य, चंद्र, तारों का भी किसी को कुछ नहीं होता भान।
चक्षु मिले जब प्रथम बार, निर्मल रूप दिखी ममता की
शिशु-स्नेह, अवलम्बन की प्रतिमूर्ति थी मिली पिता की।
आँखें हैं अनमोल कि जिसने, हमको सुंदर संसार दिया
सृष्टि की अतुल्य सृजन यह, रंग, रूप और प्यार दिया।
जाने कब तक जीवन हो, अगले पल से हैं सब अनजान
नष्ट वपु फिर भी हैं धरा पर, नेत्र का देकर अपने दान।
नैन ही जाने नैन की भाषा, नैन-छवि दिल में बस जाए
हर्ष, विषाद, व्यथा विदित हो, जरा पर्णल-पलकें हट जाए।
नैन न होते तो धरा पर कुछ भी कर पाना मुश्किल था
श्रेष्ठता पाना जीवों में, मानव-धर्म निभाना मुश्किल था।
दृष्टि न होती तो वसुधा पर ईश्वर का दर्शन पाता कौन ?
भला-बुरा और ऊँच-नीच का अंतर हमको बतलाता कौन ?
✍️ सरोज कंचन ( कानपुर, उत्तर प्रदेश )
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