बुधवार, अक्टूबर 06, 2021

🌿 सत्यमेव जयते 🌿

किरण के मुख पर मुस्कान आ गई। आज न जाने क्यों पिछली बातें  याद आने लगी। माँ बाबूजी को गए पाँच वर्ष हो गए थे लेकिन उन्होंने विरासत में जो आदर्श  दिए थे उन्हें वह कभी भुला न सका था। बात चालीस वर्ष पूर्व की है लेकिन ऐसा भास हो रहा था है कि सब कुछ अभी हाल में ही गुजरा है। दरअसल कुछ प्रकरण जीवन में ऐसी अमिट छाप छोड़ देते है जो स्मृतियों में स्थाई घर बना कर बैठ जाते है और जाने का नाम ही नहीं लेते। बचपन...शीशे के समान पारदर्शी, निष्कपट ,निश्छल, साफ और शुद्ध। एक हल्की सी खरोंच भी प्रतिबिम्ब को बिगाड़ देने में सक्षम। बाल मन है तो अबोध अवस्था लेकिन सद्यः ग्राह्य। जो भी सुना जो भी देखा मन पर अंकित हो जाता है। हर बात में केवल सच्चाई ही अनुभूत होती है। बालक के लिए माता-पिता ही उसका पूरा संसार होते है। उसकी पूरी दुनिया उनके ही इर्द-गिर्द घूमती रहती है। यहीं संस्कारों के बीज पड़ते है। अबोध मन पर इस समय में डाली गई शिक्षा का प्रभाव  मृत्यु पर्यंत रहता है। इसीलिए मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन में इस अवस्था में सीखे गए संस्कारों की छाप प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दिखाई ही दे जाती है। बालमन कच्ची मिट्टी के घड़े जैसा कोमल और लचीला। जैसा सोचो और समझो वैसा ढाल दो।

किरण उन सौभाग्यशाली बच्चों में से था। जिसे घर में बहुत अच्छा वातावरण मिला था। पिता अनुशासन प्रिय थे और  माँ पिताजी के विचारों के अनुकूल ही घर में व्यवस्था का कुशल निर्वाह करती थी। घर में आदर्श और परंपरा का कठोर पालन किया जाता था। पिताजी का चरित्र आदर्श कर्तव्य और शील की त्रिवेणी था। वचन के धनी। लीक पर चलने वाले। मर्यादा और नियमों के प्रति समर्पित। किसी भी स्थिति में झुकने को तैयार नहीं। अपने आदर्शों से किसी प्रकार का समझौता करने को राजी नही। कभी कोई दुर्बलता नहीं देखी थी उनके चरित्र में। मनसा वाचा कर्मणा सत्य को मान कर चलने वाले। व्यवहार में सादगी कर्म में उच्चता उनके अभीष्ट थे। माँ सदाचार की प्रतिमा... वात्सल्य की मूर्ति और परिवार के लिए समर्पित महिला थी। बच्चों में ही उनका पूरा संसार उनका सिमट गया था। ऐसे चरित्रवान माँ और पिताजी का गहरा प्रभाव पड़ा था किरन के जीवन पर।

                 बात उन दिनों की है जब पिताजी का स्थानांतरण हो गया था। एक छोटे से शहर में और वहीं पर राजकीय उच्च माध्यमिक स्कूल में किरन का दाखिला करवा दिया गया था। जब यह घटना घटी तब किरन सातवीं कक्षा में पढ रहा था। नई जगह, नया वातावरण और नए लोग।  वह तालमेल नहीं बिठा पा रहा था। आरंभ के दिनों में बहुत असहज बना हुआ था। कक्षा में अभी किसी से दोस्ती नहीं हुई थी। फिर धीरे-धीरे दोस्त बनने शुरू हुए। किरण पढाई में तेज था। बहुत सौम्य और शांत। बहुत जल्दी सभी का चहेता हो गया। शिक्षक भी उससे बड़े प्रेम से व्यवहार करने लगे थे।  कुछ ही समय में पूरी कक्षा का वह छात्र नायक बन गया था। 

उन दिनों अर्ध-वार्षिक परीक्षाएं चल रही थी। हिंदी की परीक्षा। किरन का प्रिय विषय। उसके अंक हमेशा शीर्ष पर रहते थे। सबसे अधिक। वह क्लास में अव्वल आता था। उस दिन का प्रश्न पत्र उसके सामने आया। उसने प्रश्न पत्र देखा। उसका चेहरा चमकने लगा। सभी प्रश्न उसे आते थे। उसकी वर्तनी भी बहुत सुंदर थी। वह धीरे-धीरे उत्तर लिखने लगा। अभी बहुत समय था। कुछ देर बाद लिखते-लिखते वह अटक गया। उसके प्रश्न पत्र में एक प्रश्न ठीक से छपा नहीं था। स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था। परीक्षा कक्ष में वह कभी गर्दन भी न घुमाता था। वह असमंजस में था कि क्या करें ? 

अचानक देखा नारायण अपना पेपर समाप्त कर शिक्षक के पास देने जा रहा था। शिक्षक ने उसकी उत्तर पुस्तिका ली और उससे कहा,’ नारायण , तुमने परीक्षा पत्र लिख लिया है। अब तुम कुछ देर कक्षा का निरीक्षण करो कि कहीं कोई छात्र नकल तो नहीं कर रहा है ? मैं कुछ देर आराम करता हूँ।

मास्टर जी की आज्ञा पर नारायण खड़ा होकर सबको देखने लगा। उसकी निगाहें किरन पर आकर अटक जाती थी।दरअसल वह किरण को पसंद नहीं करता था क्योंकि पहले वह क्लास में अव्वल आता था लेकिन जब से किरण स्कूल में आया था।उसकी पदवी छिन गई थी और किरन का दर्जा उससे ऊपर हो गया था। नारायण मन ही मन उससे जलता था।

किरन दुविधा में था। उसे प्रश्न समझ नहीं आ रहा था। इतने में पास ही बैठे अविनाश ने उसकी ओर गर्दन घुमाई। वह उसे देखकर मुस्कुराया। आँखों ही आँखों में इशारे हुए। किरन ने उसे इशारा किया कि वह अपना प्रश्न पत्र दिखाए ताकि वह उस प्रश्न को देख ले जो दुविधा पैदा कर रहा था। अविनाश इशारों की भाषा समझ गया और अपना प्रश्न पत्र तिरछा कर दिया। किरन ने देख लिया और उसकी दुविधा दूर हो गई। वह आखिरी उत्तर था और उसे आता था।नारायण ने यह सब नाटक देख लिया था। उसे कारण मिल गया था किरन को नीचा दिखाने का।  वह चिल्ला उठा,’ मास्टर जी किरन नकल कर रहा है। 

बस क्या था ! आवाज सुनते ही मास्टर जी चौंक गए। उन्होंने गुस्से से किरन को देखा और चिल्लाकर कहा, ‘किरन, यहाँ आओ। तुमसे यह उम्मीद न थी। तुम तो होशियार बच्चे हो। तुम नकल कर रहे थे ? किरण का हृदय जोर जोर से धड़कने लगा। वह डर गया था। मुँह से आवाज नहीं निकल रही थी। उसने कभी ऐसी गलती नही की थी। वह काँपते हुए बोला, नहीं मास्टर जी। मैं तो केवल प्रश्न देख रहा था। आप अविनाश से पूछ लें’ । 

मास्टर जी ने घूरते हुए कहा, ‘केवल प्रश्न ? मैं तुमसे पूछ रहा हूँ कि तुमने नकल की या नहीं ? हाँ या ना में जवाब दो। हाँ या ना' ? 

मास्टर जी की दहाड से किरन बुरी तरह से भयभीत हो गया था। 

वह झूठ नहीं बोल सकता था। पिता जी ने यही शिक्षा दी थी कि कितनी भी कठिन परिस्थिति आए कभी भी झूठ का सहारा नही लेना चाहिए। मुँह से अनायास ही निकल पडा ….’हाँ’ ।

उसका उत्तर सुनते ही मास्टर जी आँधी की तरह आये और उसकी कॉपी छीनकर ले गए। उसे लाल स्याही के पेन से पूरी तरह काट दिया और बड़ा सा शून्य बना कर उसके मुंह पर दे मारा। 

‘सर मैंने केवल प्रश्न देखा था प्लीज सर’ मैं निर्दोष हूँ। मुझे माफ कर दो ‘। वह गिड़गिड़ा रहा था। 

‘पाँच पैसे की चोरी हो या पाँच लाख की। चोरी चोरी ही होती है। मैं तुम्हें माफ नहीं कर सकता। समझे’! मास्टर जी गुर्राते हुए बोले। 

किरन हक्का-बक्का होकर देख रहा था। उसकी रुलाई बाहर नही आ रही थी। जीवन में यह पहला ऐसा अनुभव था। वह लाज से गढ़ा जा रहा था। सब बच्चे लिखना छोड़ उसी की ओर देख रहे थे।  बारह वर्ष का अबोध मन घबरा गया था। उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था। इससे पहले वह क्षमा मांगता अपराधी मानकर उसे सजा मिल चुकी थी। तरह-तरह के विचार आने लगे। सबसे बड़ा डर... पिताजी क्या कहेंगे। मार पड़ेगी। चमड़ी ही उधेड देंगे। वह कभी भी फेल नहीं हुआ था और आज शून्य आ गया। और उस पर हिंदी की परीक्षा ! सबसे आसान तथा प्रिय विषय। कितना घृणित काम उसने कर दिया। वह मन ही मन पछता रहा था। दिमाग सुन्न हो गया था।

इतने में तेज आवाज आई, ‘अभी भी बेशर्म की तरह यहीं ही खड़े हो ? निकल जाओ क्लास से’। वह हड़बड़ा कर रोता हुआ क्लास से बाहर निकल गया।

                किरन रोते हुए घर पहुँचा। आते ही माँ से लिपट गया। घिघ्घी बंध गई। बुरी तरह रो रहा था , ‘ माँ मैंने नकल नहीं की। हिंदी क्या मैं नकल करूँगा माँ तुम ही बताओ। मास्टर जी ने पूछा कि देखा कि नहीं ...मैने केवल प्रश्न पूछा था माँ क्योंकि वह ठीक से छपा नहीं था मेरे पेपर में.... तो उन्होंने पकड़ लिया। झूठ कैसे कहता ... देखा था मैंने तो ... पर वह तो प्रश्न था उत्तर नहीं माँ... लेकिन फिर भी मास्टर जी ने ज़ीरो डाल दिया माँ ‘। किरन माँ से लिपट कर जार-जार रो रहा था और माँ पुचकार कर उसे चुप करा रही थी। वह जितना रोए जा रहा था माँ उतना ही दुलार रही थी।

                  शाम को पिता जी आए। किरन आज जल्दी सो गया था। माँ ने उन्हें सब समझा दिया था। किसी ने घर में कुछ नहीं कहा। किरन को संदेह हो रहा था। वह भयभीत था कि पिताजी अवश्य मारेंगे लेकिन सुखद आश्चर्य ... ऐसा कुछ नहीं हुआ।

                अगले दिन यथावत पिताजी ने किरन को स्कूल छोड़ा। रास्ते में इस विषय पर कुछ बात नहीं की। केवल मुस्कुराते हुए हाथ हिलाया था। 

       स्कूल में सामूहिक प्रार्थना का समय था। सब विद्यार्थी अपनी अपनी कक्षा की अलग-अलग पंक्तियों में खड़े हुए थे। सभी छात्र  सभी शिक्षक और प्रधानाचार्य भी उपस्थित थे। किरण अपनी पंक्ति में सबसे पीछे चुपचाप सिर झुकाए खड़ा हो गया। आज किसी को देखने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। पहली बार वह अपने को अपराधी महसूस कर रहा था। कोई उसकी ओर देख मुस्कुराता तो वह आँख चुरा लेता था।

   प्रार्थना शुरू हुई।

        ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो न ...

         हम चले नेक रस्ते पर हमसे, भूल कर भी कोई भूल हो ना ॥  

  गाते-गाते किरन की हिचकियां बंध गई थी। वह आँखें मूंदे रोते हुए प्रार्थना गा रहा था। दोनों गाल रो-रोकर सूज गए थे। पूरा मुंह आँसुओं से तरबतर हो गया था।

  प्रार्थना समाप्त हुई।  प्रार्थना के पश्चात हर दिन एक प्रेरणात्मक कहानी बच्चों को सुनाकर एक सीख  दी जाती थी।

आज हेडमास्टर जी ने माइक थामा और बोलना शुरू किया.......

     ‘मेरे प्रिय छात्रों ! शुभ दिन ! आप सबको आज मैं जो कहानी सुनाने जा रहा हूँ वह कहानी नहीं सच्चाई है। सत्य के जीत की कहानी। एक ऐसे छात्र की कहानी जिसने अपमान सह लिया लेकिन सच का साथ नहीं छोड़ा। सच की राह पर चलना कितना कठिन है यह उसने हम सबको दिखा दिया। उसने पूरे स्कूल के सामने एक आदर्श उपस्थित किया है। मैं अब आपको उस छात्र का नाम बताता हूँ। वह है हमारे ही विद्यालय की सातवीं कक्षा का छात्र किरन .... । 

      कल की परीक्षा में वह नकल करते पकड़ा गया था और आपको पता है वह नकल किसकी कर रहा था ....? प्रश्न की जो उसके प्रश्न पत्र पर ठीक तरह से छपा नहीं था। मास्टर जी द्वारा पूछे जाने पर उसने साहस से स्वीकार किया कि.... हाँ ,….वह देख रहा था अपने दोस्त का प्रश्न पत्र। उसने अपनी गलती स्वीकार की। वह चाहता तो झुठला सकता था लेकिन उसने सच कहा। झूठ नहीं बोला। भले ही इसमें उसे शून्य मिला लेकिन वह सबके सामने सच पर खड़ा रहा। अपमान सहा लेकिन झूठ नही कहा। देखा बच्चों सच की ताकत। भले देर से ही सही, लेकिन सत्य की हमेशा जीत होती है’ ।

किरन को विश्वास नही आया कि हेडमास्टर जी क्या कह रहें है ? उसने भीगी नजरों से सर उठाकर देखा। 

हेडमास्टर जी ने उसे इशारे से उसे अपने पास बुलाया। कांपते पाँवों से किरन चलता हुआ आया। मास्टर जी ने उसे गोद में उठा लिया और गाल पर चूमते बोले,’ धन्य है ऐसे माता-पिता जिन्होंने अपने बच्चों को यह शिक्षा दी कि सच का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। मैं तुम्हारे माँ पिताजी को प्रणाम करता हूँ और सभी के सामने किरन को एक पुरस्कार की घोषणा करना चाहता हूँ जो आगामी वार्षिकोत्सव में दिया जाएगा। शाबाश बेटा” । यह सुनकर पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। 

किरन खुशी से फूला नहीं समा रहा था। उसका मन आसमान में उड़ रहा था। वह भाग कर घर जाना चाहता था और माँ पिताजी को यह खबर देना चाहता था। उसे समझ आ गया था कि क्यों पिताजी ने उसे नहीं डांटा था। सच की जीत हुई। आज सत्य ने उसकी रक्षा की। उसे खोया हुआ उसका मान दिलाय। उसने आज  फिर प्रतिज्ञा की, कि वह अपने जीवन में कभी सच का साथ नहीं छोड़ेगा। 

                              ✍ डॉ० पद्मावती ( चेन्नई, तमिलनाडु )



2 टिप्‍पणियां:

  1. एक सकारात्मक कहानी। आज जब इन्सान आसानी से हर बात के लिये झूठ बोल लेता है, किरन ने सत्य का दामन नहीं छोड़ा। यह कहानी अन्य बच्चों को शिक्षा अवश्य देगी।

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