क्षण-भंगुर है कष्ट जगत का,
सत्य को अविजित मत मानो।
नकल करने की ‘अक्ल’ दे रहा,
वह शिक्षक भी चकराया था।
बचपन ही में बापू ने इस जग को,
सत्य का पाठ पढ़ाया था।
सच्ची शिक्षा वही है जो,
तन, मन, व आत्मा का उत्थान करे।
साक्षरता तो बस एक साधन है,
शिक्षा मानवता का ज्ञान भरे।
बापू कहते थे ज्यों-स्वास्थ्य शिशु को,
मातृ-दुग्ध से मिलता है।
मिले शिक्षण का पोषण तब ही,
मन का गुलाब भी खिलता है।
अस्वाद, अपरिग्रह, स्वनिर्भरता,
चारित्रिक गुणों की हैं दुर्लभ खान।
है सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य,
मानव में नैतिकता के बीज समान।
अहिंसक विद्रोह का मंत्र फूँक,
गोरों को समुंदर पार भगाया था।
अहिंसा को शस्त्र बनाकर,
भारत को युद्ध-कौशल सिखलाया था।
सांस्कृतिक शिक्षा-घट अमृत पीकर,
अगणित जन विद्वान हुए।
अंकुरित हुई हिय मानवता तब,
बनकर बौद्ध अशोक महान हुए।
स्वच्छता के परम पुजारी बापू,
वाकिफ़ थे देश की धड़कन से।
अंतरात्मा बापू की तड़प उठी थी,
भारत माता की तड़पन से।
आँखों में सपने आज़ादी के थे,
दुबली-लम्बी ही कद-काठी थी।
तन पर बस एक खादी की धोती,
और एक हाथ में लाठी थी।
बापू ने ‘बुनियादी शिक्षा’ को ही,
शिक्षा की बुनियाद बतलाया
सभी धर्मों के लोगों को आपस में,
मिलजुल कर रहना सिखलाया।
✍️ सरोज कंचन ( कानपुर, उत्तर प्रदेश )
लाजवाब
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