गुरुवार, सितंबर 16, 2021

🦋 दूरदर्शन की झाकियां 🦋

साठ वर्षीय दूरदर्शन की,

साठ झांकियां लाई हूँ।

इंटरनेट की दुनिया को,

एंटीना से मिलवाने आई हूँ।


 *नुक्कड़* पर *हमलोग* रोजाना,

 *औरत की कहानी* कहते थे।

 *फौजी* की चर्चा करते,

और खूब *उड़ान* भरते थे।


कुछ कच्चा तो कुछ पक्का,

*भारत की खोज* बताते थे।

तभी विद्युत तरंग को लाकर,

प्रत्यक्ष रूप दिखाते थे।


रविवार को जल्दी उठकर,

*शक्तिमान* बन जाते थे।

*नीम का पेड़* का युग था वो, 

हम *स्वाभिमान* जगाते थे। 


*जुनून* होता था *चंद्रकांता* का, 

*फिर वहीं तलाश* कर आते थे। 

*जुबान संभालकर* रहते थे, 

पर *कशिश* तो बुनते ही थे। 


 *इंतजार* रहता घंटों का, 

 *जंगल बुक* की दुनिया थी। 

 *लोक गाथा* थी बड़ी मनोहर, 

जीवन *सर्कस* की पुड़िया थी।


 *गुल गुलशन गुलफाम* सभी थे, 

 *दास्तां ए हातीम* सुनते थे। 

 *फूलवती* की साड़ी में, 

गलती कर छुप जाते थे। 


 *मुंगेरीलाल के हसीन* सपने थे, 

 *श्रीमान-श्रीमती* *पड़ोसन* थे। 

 *तू-तू मैं-मैं* ना करते,

बस *शांति* से रहते थे। 


 *बड़ी सुहानी दुनिया* थी वो, 

बस सुन्दर-सुन्दर सपने थे, 

  *फ्लॉप शो* कोई ना था,

ना *तीखी बातें* करते थे।


  *इन्द्रधनुष* से रंग भरे थे, 

  *रामायण* की शिक्षा थी। 

  *किले का रहस्य* समझने, 

 *महाभारत* की दीक्षा थी। 


  *श्री कृष्ण* और रंगोली थी, 

*चाणक्य* की नीति थी।

 *खानदान* मेें सबके *सुरभि* 

  *इधर उधर* ना करती थी। 


  *चित्रहार* था सब का जीवन,

सतयुग की बस गाथा था।

*चाट-पानी* सब गलियों मेें बिकते, 

यह अनुपम *युग* कहलाता था। 


  *कहां गए वो लोग* यहां के 

  जहां *मिर्जा ग़ालिब* हंसते थे, 

  *और भी ग़म है दुनिया* के पर, 

सब मिलकर ही रहते थे।


  *नीव* बड़ी मजबूत थी तबकी, 

वर्तमान सा कुछ ना था।

  *चांद सितारे* और *चन्दामामा* थे, 

पर *अलिफ लैला* जैसा आनंद ना था।


  *बनेगी अपनी बात* सदा, 

  *तेनाली रामा* कहते थे। 

  *ब्योमकेश बक्शी* के साथी बन, 

  *राजा और रैंचो* रहते थे। 


  कभी-कभी *स्पेस सिटी* के, 

  *अलाउद्दीन* बन जाते थे। 

  *अरबियान नाइट्स* की शोध में, 

  अन्य साथ से निकल जाते थे। 


आओ ! नींद आ नींद आ खेले,

तब कोई नहीं कहता था ।

  *दर्द का रिश्ता* दिल को छूता,

बेटा माँ-बाप की पूजा करता था। 

✍️ मंजू शर्मा ( सूरत, गुजरात )

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