साठ झांकियां लाई हूँ।
इंटरनेट की दुनिया को,
एंटीना से मिलवाने आई हूँ।
*नुक्कड़* पर *हमलोग* रोजाना,
*औरत की कहानी* कहते थे।
*फौजी* की चर्चा करते,
और खूब *उड़ान* भरते थे।
कुछ कच्चा तो कुछ पक्का,
*भारत की खोज* बताते थे।
तभी विद्युत तरंग को लाकर,
प्रत्यक्ष रूप दिखाते थे।
रविवार को जल्दी उठकर,
*शक्तिमान* बन जाते थे।
*नीम का पेड़* का युग था वो,
हम *स्वाभिमान* जगाते थे।
*जुनून* होता था *चंद्रकांता* का,
*फिर वहीं तलाश* कर आते थे।
*जुबान संभालकर* रहते थे,
पर *कशिश* तो बुनते ही थे।
*इंतजार* रहता घंटों का,
*जंगल बुक* की दुनिया थी।
*लोक गाथा* थी बड़ी मनोहर,
जीवन *सर्कस* की पुड़िया थी।
*गुल गुलशन गुलफाम* सभी थे,
*दास्तां ए हातीम* सुनते थे।
*फूलवती* की साड़ी में,
गलती कर छुप जाते थे।
*मुंगेरीलाल के हसीन* सपने थे,
*श्रीमान-श्रीमती* *पड़ोसन* थे।
*तू-तू मैं-मैं* ना करते,
बस *शांति* से रहते थे।
*बड़ी सुहानी दुनिया* थी वो,
बस सुन्दर-सुन्दर सपने थे,
*फ्लॉप शो* कोई ना था,
ना *तीखी बातें* करते थे।
*इन्द्रधनुष* से रंग भरे थे,
*रामायण* की शिक्षा थी।
*किले का रहस्य* समझने,
*महाभारत* की दीक्षा थी।
*श्री कृष्ण* और रंगोली थी,
*चाणक्य* की नीति थी।
*खानदान* मेें सबके *सुरभि*
*इधर उधर* ना करती थी।
*चित्रहार* था सब का जीवन,
सतयुग की बस गाथा था।
*चाट-पानी* सब गलियों मेें बिकते,
यह अनुपम *युग* कहलाता था।
*कहां गए वो लोग* यहां के
जहां *मिर्जा ग़ालिब* हंसते थे,
*और भी ग़म है दुनिया* के पर,
सब मिलकर ही रहते थे।
*नीव* बड़ी मजबूत थी तबकी,
वर्तमान सा कुछ ना था।
*चांद सितारे* और *चन्दामामा* थे,
पर *अलिफ लैला* जैसा आनंद ना था।
*बनेगी अपनी बात* सदा,
*तेनाली रामा* कहते थे।
*ब्योमकेश बक्शी* के साथी बन,
*राजा और रैंचो* रहते थे।
कभी-कभी *स्पेस सिटी* के,
*अलाउद्दीन* बन जाते थे।
*अरबियान नाइट्स* की शोध में,
अन्य साथ से निकल जाते थे।
आओ ! नींद आ नींद आ खेले,
तब कोई नहीं कहता था ।
*दर्द का रिश्ता* दिल को छूता,
बेटा माँ-बाप की पूजा करता था।
✍️ मंजू शर्मा ( सूरत, गुजरात )
अपने तो सारे पुराने सीरियल याद दिला दिये 👌👌
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