शनिवार, सितंबर 25, 2021

🔆 बचपन तुझको लग गई नज़र 🔆

 बचपन तुझको लग गई नज़र 
 खेला करते थे शाम सहर
 दौड़ा करते थे पहर-पहर
 अमिया चुनते थे बागों में
 भागा करते मां से छुपकर
 बचपन तुझको लग गई नज़र।

 मां हमें नहीं जब पाती थी
 देकर आवाज बुलाती थी
 कानों से पकड़ कर लाती थी
 मां पूरी डांट पिलाती थी
 मां की वह डांट भी भाती थी
हम हँस पढ़ते थे खिल-खिल कर
बचपन तुझको लग गई नज़र।

पिज़्ज़ा, चिप्स और मोमोज जैसी
चीजों की थी बुनियाद नहीं
रोटी, दाल और चटनी का
भूला अब तक वह स्वाद नहीं
मां की पसंद के भोजन को
कभी ठुकराया यह याद नहीं
देखा करती थी मां सबको
मां की पैनी थी बड़ी नज़र
 बचपन तुझको लग गई नज़र।

 तू था बचपन नटखट-नटखट
 भागा करता था तू सरपट
 हर पल करता खटपट-खटपट
 आ लौट के तू फिर आ झटपट 
 चुप बैठ ना बोला कर पट-पट
 क्यों रूठ गई तेरी चपर-चपर
 बचपन तुझको लग गई नज़र।

 कितना सुंदर और सलोना था
 खुश घर का कोना-कोना था
 एक कमरे में तू सिमट गया
 बस मोबाइल से लिपट गया
 सबकी आंखें विस्मित सी हैं
 बगिया आंगन सब हहर हहर
 बचपन तुझको लग गई नज़र।
 
 सब खेल-खिलौने रूठ गए
 संगी साथी सब छूट गए
 सब खेल सिमट गया कमरे में
 हर दोस्त सिमट गया अपने में
 भोला बचपन तू किधर गया
 सब ढूंढ रहे तुझे शहर-शहर
 बचपन तुझको लग गई नज़र।
       
                 ✍️ संध्या शर्मा ( मोहाली, पंजाब )

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