भाषा के सुंदर उपवन में,
हिंदी जैसे फूल हो गुलाब।
संस्कृत भाषा जननी जिसकी,
जो स्वयं कमल सी लाजवाब।।
मधुर, वांग्मय, सत्य सहित,
साहित्य जगत में निखर गई।
आदि, भक्ति, रीति व आधुनिक,
चारों कालों में मुखर गई।।
सूर, तुलसी और कबीर की,
लेखनी से जाकर टकराई।
आशीष ले माँ सरस्वती का,
मीरा के भजनों में समाई।।
भूषण के हाथों में जाकर,
छत्रपति की तलवार बनी।
घनानंद और जायसी की,
सृजनता की श्रंगार बनी।।
आधुनिक युग में सत्य की,
छाया बनकर चलती रही।
जयशंकर, देवी, पंत, निराला,
सबकी नैया में बहती रही।।
प्रगतिवाद में सब बंधन टूटे,
नहीं पता था कहां किनारा।
परिवर्तन का दौर शुरू हुआ,
आचार्य शुक्ल का था न सहारा।।
क्यों खोलें इतिहास के पन्नों को,
जिनमें चोटें खांईं पर रही तटस्थ।
जब चारों ओर से हुआ आक्रमण,
वेद-पुराणों में हो गई आत्मस्थ।।
अरे ! किसने ये राह नई दिखाई है,
हिंदी के प्रति कर भाव समर्पित।
हिंदी के शुभ नवीन स्वागत में,
पावन वेद गंगा की धार बहाई है।।
सहज, सरल, सरस, अलंकृत,
वेद-श्रुति-सनातन-संस्कृत।
हिंदी ने अपनाया जगत को,
साहित्य-जगत-मंथन-अमृत।।
✍️ प्रतिभा तिवारी ( लखनऊ, उत्तर प्रदेश )
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