कहना था किसी को बचपन से वो मधुमय भूल गए,
कैसी थी वो तोतली बानी कैसा था वो अपनापन।
मटक-मटक कर कैसे चिड़ाते छुप-छुप कर कहते है दर्पण,
कैसे-कैसे खेल खिलाए मौज उड़ाई है हरदम।
मां का कितना प्यार मिला है पिता ने देखा हर कदम- कदम,
कभी किसी ने डाट पिलाई रोते थे और मां घबराई।
कभी झगड़ना फिर मिल जाना खेल-खेल में फिर अपनाना,
दो उंगली को मिला-मिला कर ऐसे मित्र बनाते थे।
चोर सिपाही का खेल जो खेला उसमे भी लड़ जाते थे,
गुल्ली डंडा की जब बारी आई उसमें सबने मौज उड़ाई।
लुका छुपी में चुपके से मिलते आंख-मिचोनी में
सरमाए,
मां की लोरी को सुनकर भी भूखे पेट सो जाते थे।
बचपन जैसा कुछ ना होता जहां सब सुख मिल जाते हैं,
अपनों को अपनाते जब बचपन कि यादें खूब बताते है।
✍️ रमाकांत तिवारी ( झांसी, उत्तर प्रदेश )
सही है बचपन जैसा कुछ नही 👌
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