जली लाखों चिताएं....
ज्योतिर्मय हुई स्वतंत्रता की मशाल।
दफन हुए हजारों सेनानी....
लहराया बलिवेदी पर तिरंगा विशाल।
कतरा-कतरा खून से,
सींचा जननी जन्मभूमि को।
परतंत्रता की जंजीरों से,
मुक्त किया मातृभूमि को।
चमक रहे नक्षत्र से वीर,
मातृभूमि के भाल पर।
उछाल रही गुलाल, अबीर,
जगत जननी लाल पर।
झूले भगत, आज़ाद जिस फंदे पर,
वहीं झूल रहे चील, गिद्ध से परिंदे।
गूंजा जहां "इन्कलाब जिंदाबाद",
वहीं कुंडली मार बैठे हैं दरिंदे।
जवानी खपाई काल कोठरी में,
उन्हें कहते कृतघ्न, शरणागत।
हाथों की मेहंदी भी न सूखी,
वो कफन ओढ, दे आए शहादत।
मुद्दतों बाद मिली आजादी की,
कद्र करना सीख लो राही।
आधिकारों की सुनहरी कलम में,
कर्तव्यों की भर लो स्याही।
जब सूरज दे सबको उजाला,
चंदा शीतल चांदनी।
धर्म, जाति, संप्रदाय के नाम पर,
क्यों करे हम मनमानी ?
प्रकृति माँ का न करें उपहास,
दरिया मोडने का निष्फल प्रयास।
पर्यावरण दोहन का अट्टहास,
सृष्टि का स्वैराचार से विनाश।
ये वतन ! कुर्बान तुझ पर मेरी जवानी।
रत्नगर्भा ! तेरे खातिर, नौछावर ...जिंदगानी।
छू लूं मां, तेरे अधरों को, सो जाऊ तेरी गोद में।
आखरी सांस तेरी बाजूओं, लिपट आऊ तिरंगे में।।
✍️ कुसुम अशोक सुराणा ( मुंबई, महाराष्ट्र )
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