लो आ गई देखो फिर, कुछ याद दिलाती शाम,
तीज का ही दिन था वो, महकाती सी शाम।
उस रोज उर मेरा उमंग से भरा, हिय हर्षित हो रहा था,
बार बार प्रियतम को, व्याकुल जिया ढूंढ रहा था।
माथे बिंदीया नाक नथनीया, मै गजरा चोटी लटकाई थी,
खनकती हरी चूड़ियों से मैने, भरी लहराती कलाई थी।
मुखड़ा निहार दर्पण में, खुद में ही मैं लजायी थी,
नैनों में सपनों को भरकर, काजल लकीर बनाई थी।
शाम हुई कब निशा चली, देहरी मै बैठी थी,
बाट जोहते प्रियवर तुम्हारी, मै कुम्हलाई थक गई थी।
अनहोनी की बातें गुन, उर मेरा धड़क रहा था,
कब आओगे सोच-सोच, मन भी बैठ रहा था।
ख़बर मिली मुझे मध्यरात्रि, तू ना अब आयेगा,
थाम सौतन का हाथ, तू दूजा घर बसायेगा।
तीज का तेरा तोहफा था या, किस्मत का था खेल,
ऐसे तूने तोड़ा मुझको, ज्यूं सूखी कोई बेल।
रोम रोम से नीर बहे मेरे, मन को ना विश्राम,
लो आ गई देखो फिर, कुछ याद दिलाती तीज की शाम।।
✍️ पदमा दीवान 'अर्चना' ( रायपुर, छत्तीसगढ़ )
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