रविवार, जुलाई 18, 2021

( ** छत ** )


ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं की 'छत' नहीं होती ,

 हो बालकनियों में कैद,

 छत के नज़ारों का लुत्फ अब भूल रहे,      

 जिस छत को अहं था छत होने का,

 मंजिलें बनती गई, छत फर्श बन गई,

 याद आती है बचपन की वो छत,

 जहां ढेरों सपने संजोए,

 बारिश की मीठी फुहारों में,

 छतों पर घूमते थे हम,

छत पर मस्ती भरी शामें बिताना,

चाय की चुस्कियों के संग,

धीमे से छुपे राजों को खोलना,

रूठ जाना कहीं, तो कहीं मनाना ,

आचार की बरनियों से चुपके से आचार खाना,

मां का वह वड़ियां, पापड़ सुखाना,

दोस्ती कर चांद से, सप्तर्षि तारामंडल को ढूंढना,

पतंगों को उड़ने-उड़ाने का सिलसिला,

अपनी छत से, पड़ोसियों की छत से दोस्ती करना,

वो सखियों-सहेलियों से गप्पे मारना,

याद आ गई वो 'छत पर पहली मुलाकात, 

दिल की तरंगों को छेड़ गई फिर से,

अब तो तारे भी थोड़ा धीमे टिमटिमाते हैं,

टीवी पर उलझे बच्चे, अब छत पर कहां आते हैं,

आज कहीं 'छत' खो सी रही है,

आज के इस दौर में,

'छत' टपकती किसी की है और भीगता कोई है,

'छत' बनाई जिसने,

'छत' ढूंढता वही है,

ढूंढती हूं स्मृतियों में......

खोई हुई वो बस्ती, वो गलियां,

जहां चलते-चलते,

 मिल जाती 'वो कीमती छत'.........

                ✍️ डाॅ० ऋतु नागर ( मुंबई, महाराष्ट्र )


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