नित सवेरे उठकर,
पहन लेती हूँ ताज गृहिणी का
ना कोई सर्टिफिकेट,
ना कोई मिलता मुझे मेडल।
गृहिणी का बस सजता है माथे पर लेवल।
पत्नी, बहू, माँ, भाभी, यही तो है मेरी पहचान
इतने सारे नामों में कहीं खो गया है मेरा नाम
कभी जब ढूंढ़ती हूं वजूद को अपने
अश्कों के धुंधले आईने में
दिखते हैं मेरे बेबस से सिसकते मेरे अरमान
अपने इन्हीं अरमानों को जिया था जो कभी मैंने
आज उन्हीं अरमानों को खोया है सभी मैंने
पलकों पर सजाया था जो ख्वाब कभी
बनकर मोती अश्कों के बिखर गए हैं सभी
सबकी सेवा में तत्पर, दिन-रात लगी रहती हूँ
फिर भी मेरे काम का है कोई मोल नही
बिन पगार का जॉब है कोई मोल नही
अपने कर्तव्यों और फर्ज के तकिए तले
अपने सपनों को संजोती हूँ
पर अपने सपनों से हर रोज ये वादा करती हूँ
सूरज की सुनहरी किरणें मुझ तक पहुंचेगी जरूर
एक दिन तो ये दुनियां मुझको
मेरे ही नाम से जानेगी जरूर
अपने कर्तव्य पथ पर चलते हुए
हरपल ये सोचा करती हूँ।
मैं गृहिणी हूँ।
मैं सशक्त हूँ।
मुझसे ही सजता है परिवार,
मैं परिवार का शान हूँ।
स्वाभिमान से नित सजती हूँ,
मैं गृहिणी हूँ।
मैं अनमोल हूँ।
✍️ पुष्पा कर्ण ( धनबाद, झारखंड )
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