परिवार, फूल सा संसार,
न लगे मोहे पंखुड़ियों का भार,
करू सहर्ष स्वीकार,
जीना यहां, मरना यहां,
यहीं है मेरा अनुपम जहां!
गृहिणी हूँ मैं,
सपनों के महल का आधार।
बच्चों के शामियाने की वंदनवार।
जीवनरथ की सारथी,
दौड़ते अश्वों की कठोर लगाम।
लक्ष्य का ध्यास,
मंजिलों की आस।
जीत की प्यास।
अंतरिक्ष का आभास,
परिवार का संबल,
ओढ़ दुआओं का कंबल,
चली हूँ मैं अंतरिक्ष के उस पार।
गृहिणी हूँ मैं।
हौसलों के पंख लिए,
नील गगन का स्वप्न लिए,
सदैव तैयार, होशियार, खबरदार।
शिखरों का पता लिए,
चली मैं क्षितिज के उस पार,
धरती मां के आंचल तले,
छुपने को बेकरार,
पंखों में आग लिए,
फागुन के रंग लिए,
इंद्रधनु सम मुस्कुराने,
कभी धूप, कभी छांव,
चली मैं सपनों के गांव,
साथ हमसफ़र, अंश, प्राण,
सहते, सहलाते वाग्गबाण,
गृहिणी मैं, परिवार है जीव, त्राण।
अंतर में आन, बान, शान,
करु परिवार का कल्याण।
पक्षिणी मैं, है नीड़ ..मेरी जान, जहान।।
हो जाऊ मैं नित कुर्बान।
✍️ कुसुम अशोक सुराणा ( मुंबई , महाराष्ट्र )
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें