'घर' एक सुकून, एक एहसास,
'घर' आना क्या होता है?
पहले जो छोटी-छोटी बातें हमें परेशां करती थीं,
जब हम घर के ही हुआ करते थे,
आज जब घर से दूर हैं,
तो यही बातें हमें यादें बन सताती हैं,
'घर' के अहाते में पांव रखते ही ,
वो बचपन की खुश्बू का झोंका ,
वो बाबा का पुरानी कहानी सुनाना,
सुनकर हम सबका मुस्कुराना,
मां का दौड़ कर आना ,आकर लिपट जाना,
फिर तरह-तरह के व्यंजन बनाना,
चाय की खुश्बू का रसोई तक खींच लेजाना,
दरवाजे पर लगी घंटी से भांप लेना,
कि दरवाजे पर किसका हुआ है आना,
काउच पर पैर पसारे बैठना,
और दूर कमरे में, टीवी में न्यूज़ का चलना,
वो घर की अलमारी में ,
पुरानी तस्वीरों का मिलना,
वो घर में लगा, दाल में हींग का तड़का,
वो मां का हौले से, पूजा की घंटी बजाना,
वो खिड़की से आती सुबह की धूप,
और पेड़ों से आती कोयल की कूक,
वो करीने से लगी पुरानी किताबें,
वो धीमे से बजता रहता ट्रांज़िस्टर,
वो दूर कहीं फेरीवाले की आवाज़ें,
पैसा, करियर, सफलता, प्यार,
मिल सकते है दोबारा,
पर 'घर' का एहसास इन सबसे परे है,
परदेस में बंजारों की तरह भले ही रह लें,
'घर' के संदूक में लिपटी वो यादें,
हमें 'घर' की ओर खींच ही लाती हैं........
✍️ डॉ० ऋतु नागर ( मुंबई, महाराष्ट्र )
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