चलता जिसके बल पर घर है
कहलाती वह जग में संगिनी।
गृहिणी से घर बनता है सुंदर
सुंदर सी पति की अर्धांगिनी।
सारे सम्बन्ध निभाती हरदम
बड़े जतन से मन से मानवी।
घरवाली से घर घर है बनता
चाहे वो भले हो कोई दानवी।
प्रिय सबकी होती वह घर में
कहलाती वह ही वामांगिनी।
गृहिणी से घर बनता है सुंदर
सुंदर सी पति की अर्धांगिनी।
माता पत्नी और बहू रूप से
रूप अनेकों लिए घरवाली ।
बिन उसके तो घर है अधूरा
वह मकान ही लगता खाली।
घर की लक्ष्मी और सरस्वती
कल्याणी सी जीवनसंगिनी ।
गृहिणी से घर बनता है सुंदर
सुंदर सी पति की अर्धांगिनी।
घर में भरती है जो उजियारा
होती है सहधर्मिणी वामांगिनी
तिरिया नारी वनिता औ घरनी
जाया जोरू वामा अरु सजनी।
नाम अनेकों काम भी गुरुतर
दूर करे जीवन की वो रजनी।
गृहिणी से घर बनता है सुंदर
सुंदर सी पति की अर्धांगिनी।
✍️ डाॅ० सरला सिंह "स्निग्धा" ( मयूर विहार, दिल्ली )
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