गुरु का सम्पूर्ण जीवन अपने शिष्य के लिये समर्पित रहता है, उसका हर समय अपने शिष्य को सही सीख देने के लिये अग्रसर रहता है, जीवन के किसी भी मोड़ में गुरु और शिष्य एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ते हैं। हर वक्त गुरु शिष्य के लिये एक आदर्श होते हैं।
एक छोटे से बच्चे की प्रारम्भिक गुरु उसकी माँ होती है, जीवन के प्रथम पड़ाव में वह बच्चा अपने माँ से ही हर संस्कार सीखता है। माँ उसके जीवन की बुनियाद होती है, उसकी पहली किरण , पहली रोशनी और पहली सीढ़ी होती है।
उसकी चंचलता को माँ ही नियन्त्रित करती है , उसको एक आयाम देती है । जीवन के हर क्षेत्र में उसको नसीहत देती है ,उसको समझाती है , उसको डाटती है । वक्त आने पर उसकी मारती भी है , और उसको एक नेक तासीर देने के लिये हृदय से प्रेम भी करती है। एक गुरु के साथ साथ माँ का भी किरदार बहुत ही शिद्द्त से निभाती है ।
बच्चा जैसे ही विद्यालय पहली बार जाता है तो वह अपने दूसरे गुरु से मिलता है। ये दूसरा गुरु ही उसके जीवन का आधार होता है ,माँ ने नीवं तैयार किया बच्चे की काया बन के और एक पहली शीर्षक बन के ...
विद्यालय से बच्चे के जीवन में एक औपचारिकता का शुभारंभ होता है ।जीवन के हर क्षेत्र में उसको सिखने का अवसर प्रदान किया जाता है ।
अपनी अच्छाई और बुराई से वह रुवरु होता है ,हर तरह के लोगों से मिलता है ।हर अच्छी और बुरी परिस्थिती से कैसे निपटा जाए ?
उसे इसका भरपूर ज्ञान प्राप्त होता है ।
जीवन की बुनियाद माँ और इमारत गुरु की ही देन होती है। गुरु जीवन यापन से लेकर जीवन दर्शन के सूत्रधार होते हैं। हर बुरी सी बुरी परिस्थिती में गुरु के जीवन सूत्र, उनके आदर्श , उनकी शिक्षा और उनके सिध्दान्त जीवन के हर बुरी से बुरी स्थिती में साथ देते हैं ।
गुरु के आदर्श हर शिष्य के सम्पूर्ण जीवन में अमर रहते हैं ,
उसके जीवन के लिये संजीवनी बूटी के भांति उपयोगी होते हैं ।
विडंबना ये है की कुछ शिष्य गुरु के आदर्शों के बिल्कुल खिलाफ हैं उनकी सीख उनके लिये ना कुछ के बराबर है। गुरु के सामने अपने आप को बड़ा आंकना उनका अहम है , उनका गुरूर है।
✍️ डॉ० उमा सिंह बघेल ( रीवा, मध्य प्रदेश )
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